भगवान शिव के तीसरे नेत्र की उत्पत्ति की कथा बड़ी ही मनोरम है। किसी पापी या अत्याचारी का संहार करने हेतु इसका प्रकाट्य नहीं हुआ था। अपितु संसार को घोर अन्धकार से बचाने के लिये भगवान शिव ने स्वयं ही इसका प्रादुर्भाव किया था।
ये कथा महाभारत ग्रन्थ के छठे खण्ड के अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व के एक सौ चालीसवें अध्याय में वर्णित है। इस अध्याय में भीषम देवर्षि नारद द्वारा भगवान शिव का माता पार्वती के साथ हुये संवाद का वर्णन करने को कहते हैं।
भगवान शिव त्रिनेत्रधारी कैसे बने
नारद जी बताते हैं कि हिमालय पे निवास करते हुये भगवान शिव की सभा सभी प्रकार के प्राणियों, देवताओं, प्रेतों तथा ऋषियों से शुशोभित हो रही थी। उस सभा में देवी गिरिजानन्दनी पधारीं तो मनोरञ्जन हेतु उन्होंने अपने दोनों हाथों से भगवान शिव के दोनों नेत्रों को ढक लिया। भगवान शिव सम्पूर्ण जगत के पिता तथा पालनहार हैं–उनके दोनों नेत्र बन्द होते ही पूरे संसार में अन्धकार छा गया तथा सारे प्राणी अनमने से हो गये। ऐसा लगने लगा जैसे कि भगवान सूर्य ही नष्ट हो गये हों।
जगत की ऐसी दशा देखकर भोलेनाथ भगवान के ललाट से स्वयं ही एक अत्यन्त दीप्तिशालिनी ज्वाला सी प्रकट हो गई जो कि भगवान शिव का तीसरा नेत्र बन गई। माता पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने बताया कि मैं ही सभी प्राणियों का पालनहार हूँ। मेरे नेत्र बन्द होने से सारे जगत का नाश हो जाता, इसी लिये मैंने अपने तीसरे नेत्र को प्रकट किया।
भगवान शिव सर्वदा दूसरों की भलाई के लिये तत्पर रहते हैं। वह दया तथा त्याग की मूर्ति हैं।
मैं यहाँ पर अपने मतानुसार एक बात कहना चाहता हूँ जो कि भगवान शिव की शक्ति तथा उनकी आदर्शता का प्रमाण जान पड़ता है। एक पति होने का कारण उन्होंने माता पार्वति पर क्रोध नहीं जताया क्योंकि वो तो भगवान शिव की अर्धाङ्गिनी हैं। परन्तु उसी समय भोलेनाथ ने जगत की रक्षा का दायित्व भी नहीं छोड़ा। दोनों स्थितियों के विकल्प के रूप में उन्होंने अपने तीसरे नेत्र की रचना की।
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