महाभारत के युद्ध के उपरान्त भी महाभारत ग्रन्थ में ऐसी-ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिसे सुनकर आपके रौंगटे खड़े हो जाते हैं। बहुत ही ज्ञान-वर्धक तथा तिलिस्म जैसी जान-पड़ती कथायें पढ़ने को मिलती हैं। ऐसी ही एक कथा मिलती है महाभारत के छठे खण्ड के आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व के उनासी, अस्सी तथा इक्यासीवें अध्यायों में मिलती है जिसमें अर्जुन के अपने ही पुत्र बभ्रुवाहन के साथ युद्ध तथा मृत्यु को प्राप्त होने तथा पुनर्जीवित होने का प्रसङ्ग आता है।
मुझे आशा है कि ये कथा सुनने के उपरान्त आपको आश्चर्य तो होगा ही लेकिन उसके साथ-साथ मन में ये विचार भी आयेगा कि कैसे जीवनकाल की कड़ियाँ एक दूसरे से जुड़ी होती हैं तथा कैसे हमारा जीवन हमारे कर्मों पर निर्भर करता है।
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महाभारत की कथा
अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की रक्षा हेतु अर्जुन उसके पीछे-पीछे विभिन्न राज्यों से होकर विचर रहा थे। वो मणिपुर पहुँचे तो बभ्रुवाहन अपने पिता का स्वागत करने पहुँचा परन्तु अर्जुन का तर्क था कि उसे युद्ध करना चाहिये। उसी समय बभ्रुवाहन की विमाता उलुपी ने भी बभ्रुवाहन को यही परामर्ष दिया। दोनों के बीच भयङ्कर युद्ध हुआ परन्तु बालोचित अविवेक से भरकर बभ्रुवाहन ने एक ऐसा आघात किया जिससे अर्जुन अचेत होकर गिर पड़े।
बभ्रुवाहन की माता चित्रवाहन पुत्री चित्राङ्गदा ये जानकर विलाप करने लगी तथा बभ्रुवाहन ने भी आमरण व्रत धारण कर लिया। तभी उलूपी ने सञ्जीवनी मणि से अर्जुन को पुनर्जीवित कर दिया तथा बताया कि क्यों उसने बभ्रुवाहन को युद्ध के लिये तत्पर किया तथा क्यों अर्जुन की मृत्यु हुई।
उसने बताया कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने अपने पितामह भीषम का वध अधर्म का आश्रय लेकर किया था। उसी पाप की शान्ति के लिये आपको अपने ही पुत्र के हाथों मरना पड़ा। उसने ये भी बताया कि ये उपाय देवी गङ्गा द्वारा ही स्थापित था तथा ऐसा करने के लिये ही उसको ये सब माया रचनी पड़ी।
ये सुनकर अर्जुन तथा बभ्रुवाहन तथा उसकी माता चित्राङ्गदा बहुत प्रसन्न हुये क्योंकि उलूपी के इस कार्य से अर्जुन उस पाप के प्रभाव से मुक्त हो गया था।
उलूपी एक नागकन्याा थी तथा अर्जुन की पत्नी थी परन्तु वह ना-ना प्रकार की शक्तियों से सुसज्जित थी। उसने अपने पति के हित के लिये ये कार्य किया तथा सभी का प्रसन्न किया।