भगवान शिव का नाम पशुपति कैसे पड़ा

असुरों से युद्ध के हेतु महान् दिव्य रथ में, जो अनेक विध आश्चर्यों से युक्त्त था, वेद रूपी अश्वों को जोत कर ब्रह्मा ने उसे शिव को समर्पित कर दिया। शम्भु को निवेदित करने के पश्चात् जो विष्णु आदि देवों के सम्माननीय एवं त्रिशूल धारण करने वाले हैं, उन देवेश्वर की प्रार्थना करके ब्रह्मा जी उन्हें उस रथ पर चढ़ाने लगे। तब महान् ऐश्वर्यशाली सर्वदेवमय शम्भु रथ-सामग्री से युक्त्त उस रथ पर आरूढ़ हुये। उस समय ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, लोकपाल और ब्रह्मा, विष्णु भी उनकी स्तुति कर रहे थे। गान विद्या विशारद अप्सराओं के गण उन्हें घेरे हुये थे। सारथी के स्थान पर ब्रह्मा को देख कर उन वर दायक शम्भु की विशेष शोभा हुई। लोक की सारी वस्तुओं से कल्पित उस रथ पर शिव जी चढ़ ही रहे थे कि वेद सम्भूत वे घोड़े सिर के बल भूमि पर गिर पड़े। पृथ्वी में भूकम्प आ गया। सारे पर्वत डगमगाने लगे। सहसा शेष नाग शिव जी का भार न सह सकने के कारण आतुर हो काँप उठे।

तब उसी क्षण भगवान् धरणी धर ने उठ कर नन्दीश्वर का रूप धारण किया और रथ के नीचे जाकर उसे ऊपर को उठाया, परन्तु नन्दीश्वर भी रथारूढ़ महेश के उस ऊपर को उठाया, परन्तु नन्दीश्वर भी रथारूढ़ महेश के उस उत्तम तेज को सहन न कर सके, अतः उन्हों ने तत्काल ही पृथ्वी पर घुटने टेक दिये। तत्पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने शिव जी की आज्ञा से हाथ में चाबुक ले घोड़ों को उठाकर उस श्रेष्ठ रथ को खड़ा किया। तदनन्तर महेश द्वारा अधिष्ठित उस उत्तम रथ में बैठे हुए ब्रह्मा जी ने रथ में जुते हुये मन और वायु के समान वेग शाली वेदमय अश्वों को उन तपस्वी दानवों के आकाश स्थित तीनों पुरों को लक्ष्य कर के आगे बढ़ाया। तत्पश्चात् लोकों के कल्याण कर्ता भगवान् रुद्र देवों की ओर दृष्टिपात करके कहने लगे – ‘सुरश्रेष्ठो! यदि तुम लोग देवों तथा अन्य प्राणियों के विषय में पृथक्-पृथक् पशुत्व की कल्पना करके उन पशुओं का आधिपत्य मुझे प्रदान करोगे, तभी मैं उन असुरों का संहार करूँगा, क्योंकि वे दैत्यश्रेष्ठ तभी मारे जा सकते हैं, अन्यथा उनका वध असम्भव है।‘

सनत्कुमार जी कहते हैं – मुने ! अगाध बुद्धि सम्पन्न देवाधि देव भगवान् शङ्कर की यह बात सुनकर सभी देवता पशुत्व के प्रति सशङ्कित हो उठे, जिससे उनका मन खिन्न हो गया। तब उनके भाव को समझ कर देव देव अम्बिकापति शम्भु करुणार्द्र हो गये। फिर वे हँसकर उन देवताओं से इस प्रकार बोले।

शम्भु ने कहा– देवश्रेष्ठो! पशुभाव प्राप्त होने पर भी तुम लोगों का पतन नहीं होगा। मैं उस पशुभाव से विमुक्त्त होने का उपाय बतलाता हूँ, सुनो और वैसा ही करो। समाहित मनवाले देवताओ! मैं तुम लोगों से सच्ची प्रतिज्ञा करता कहूँ कि जो इस दिव्य पाशुपत-व्रत का पालन करेगा, वह पशुत्व से मुक्त्त हो जायगा। सुर श्रेष्ठो! तुम्हारे अतिरिक्त्त जो अन्य प्राणी भी मेरे पाशुपत-व्रत को करेंगे, वे भी निस्संदेह पशुत्व से छूट जायँगे। जो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्ष तक, छः वर्ष तक अथवा तीन वर्षतक मेरी सेवा करेगा अथवा करायेगा, वह पशुत्व से विमुक्त्त हो जायगा। इस लिये श्रेष्ठ देवताओ! तुम लोग भी जब इस परमोत्कृष्ट दिव्य व्रत का पालन करोगे तो उसी समय पशुत्व से मुक्त्त हो जाओगे – इस में कुछ भी संशय नहीं है।

सनत्कुमार जी कहते हैं – महर्षे! प्रमात्मा महेश्वर का वचन सुनकर विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा- ‘तथेति‘- बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा। इसी लिये बड़े-बड़े देवता तथा असुर भगवान् शङ्कर के पशु बने और पशुत्व रूपी पाश से विमुक्त्त करनेवाले रुद्र पशुपति हुये। तभी से महेश्र्वर का ‘पशुपति‘ यह नाम विश्व में विख्यात हो गया।

इसी प्रकार वेदों से लिये गये एक अन्य कथन अनुसार पशु उसे कहते हैं जो बाह्यमुखी हो

पशुः इति पश्यति

पशुपति उसे कहते हैं जो अपनी दृष्टि अन्तर्मुखी कर लेता है।

भगवान शिव को पशुपति इस लिये कहा जाता है क्योंकि वो सम्पूर्ण इच्छाओं तथा विकारों पर नियन्त्रन पाकर अन्तर्मुखी हो जाते हैं।

(इस लेख का कुछ भाग गीता प्रैॅस द्वारा प्रकाशित शिव महापुराण से लिया गया है)

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